विधायक क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के इशारे पर सबकी नज़र
एम हसीन, रुड़की। अगर एक विधायक के अनुमान पर गौर किया जाए तो मंगलौर नगर पालिका अध्यक्ष पद के लिए क़ाज़ी निज़ामुद्दीन चौधरी इस्लाम को अपना प्रत्याशी बनाने जा रहे हैं। लेकिन खुद क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने इस मामले में अभी तक कोई इशारा नहीं दिया है। यही कारण है कि न केवल चौधरी इस्लाम अपनी उम्मीदवारी को खुलकर हवा से रहे हैं, बल्कि डा शमशाद भी अपने उम्मीदवार होने का दावा कर रहे हैं। और इन दोनों के बीच कलीम अंसारी की कोशिशें भी एक अलग तस्वीर पेश कर रही हैं। हालात ऐसे हैं कि अंत में क्या होगा यह शायद अंत में ही पता लग पाएगा।
हरिद्वार जिले में जो तीन नगर पालिकाएं हैं उनमें मंगलौर एक है। एक दौर में जब यहां क़ाज़ी मुहीउद्दीन (अब जन्नत नशीन) यहां के विधायक हुआ करते थे तब चौधरी अख्तर अंसारी यहां चेयरमैन हुआ करते थे। उत्तराखंड स्थापना से पहले एकाध व्यवधान के बीच लगभग 25 साल तक यह स्थिति रही थी। इनमें चार बार खुद अख्तर अंसारी और एक बार उनकी पत्नी सरवरी बेगम चेयरमैन रही थी। कलीम अंसारी इसी दंपत्ति के ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनके क़ाज़ी निजामुद्दीन के साथ पहले से ही बेहतर रिश्ते रहे हैं और हाल के विधानसभा उप चुनाव में कलीम अंसारी ने खुलकर क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के लिए मंच सजाए, सभाएं कराईं और बेशक उन्हें अपनी अंसारी बिरादरी के वोट भी दिलवाए। कलीम अंसारी की सक्रियता बता रही है कि उप चुनाव में उन्होंने मेहनत क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के लिए की और भावी राजनीतिक जरूरत के लिए रिवाइव खुद को भी किया।
लेकिन उप चुनाव में विधायक के लिए जितनी मेहनत उन्होंने की उतनी ही डा शमशाद ने भी की। डा शमशाद तेली बिरादरी से आते हैं और उन्होंने निकाय का चुनाव पहली बार क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के आशीर्वाद से ही 2007 में जीता था; हालांकि तब तकनीकी कारणों के चलते प्रत्याशी वे खुद नहीं बल्कि उनकी माता बनी थी। तब टर्म पूरा होने से पहले ही वे पाला बदलकर यहां के अंसारी दिग्गज हाजी सरवत करीम अंसारी (अब जन्नत नशीन) के खेमे में चले गए थे। तब 2012 में क़ाज़ी निजामुद्दीन को पराजित कराने में उन्होंने न केवल अहम योगदान दिया था बल्कि इसके लिए बधाइयां भी बटोरी थी। इसी कारण 2013 में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने चौधरी इस्लाम को चेयरमैन बनाकर डा शमशाद के प्रत्याशी को निकाय से बाहर कर दिया था। 2018 में चौधरी इस्लाम क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के और डा शमशाद हाजी सरवत करीम अंसारी के प्रत्याशी के रूप में मैदान में आए थे। तब तक यहां कि निकाय राजनीति उसी प्रकार चौधरी इस्लाम बनाम डा शमशाद में विभाजित हो गई थी जिस प्रकार तब विधानसभा की राजनीति क़ाज़ी बनाम हाजी में विभाजित थी। लेकिन फिर बदलाव आया था। हाजी सरवत करीम अंसारी की वफात के बाद जैसे हाजी फैक्टर यहां खत्म हो गया था उसी प्रकार डा शमशाद के क़ाज़ी निजामुद्दीन कैंप में आ जाने के बाद चौधरी इस्लाम बनाम डा शमशाद फैक्टर भी खत्म हो गया है क्योंकि चौधरी इस्लाम पहले से ही क़ाज़ी निज़ामुद्दीन की वफादारी में हैं। चौधरी इस्लाम क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के पुराने वफादार हैं उन्होंने भी हाल के उप चुनाव में क़ाज़ी निजामुद्दीन के लिए जमकर मेहनत की।
उपरोक्त तमाम चीजें अपने स्थान पर हैं और यह अपने स्थान पर कि इस बार क़ाज़ी निजामुद्दीन चौधरी या डॉक्टर में से किसी एक को ही प्रत्याशी बना सकते हैं। दोनों को वे एक साथ चुनाव नहीं लड़ा सकते। दूसरी बात, दूसरे फैक्टर को जिंदा करने के लिए अब कोई हाजी सरवत करीम अंसारी मौजूद नहीं हैं। यही कारण है कि अगर क़ाज़ी निज़ामुद्दीन इन दोनों से किसी एक को चुनाव लड़ाते हैं तो दूसरे को खामोश होकर ही बैठना पड़ेगा। और अगर क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने कलीम अंसारी को चुनाव लड़ाना तय किया तो फिर इन दोनों को ही मन मसोसना पड़ सकता है।
ऐसी स्थित में नफीस अंसारी की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। नफीस अंसारी भी चुनाव लड़ने के लिए पर तोल रहे हैं और वे पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष हैं। उनके विषय में यह महत्वपूर्ण है कि 2003 के निकाय चुनाव में उन्होंने ही पालिका की राजनीति में चौधरी अख्तर अंसारी फैमिली के वर्चस्व को तोड़ा था और कांग्रेस के टिकट पर चेयरमैन पद का चुनाव जीते थे। तब उन्हें हाजी सरवत करीम अंसारी का मजबूत समर्थन मिला था। हालांकि बाद में वे कोई खास प्रदर्शन कभी नहीं कर पाए।बहरहाल, यहां क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के इशारे पर जितनी गहरी नजर चौधरी इस्लाम, डा शमशाद और कलीम अंसारी की है, उतनी ही गहरी नजर राजनीतिक पर्यवेक्षकों की भी है।