तमाम उम्र जलाए हैं गम ए दिल के चराग
यूं ही नजर नहीं आती सजी-सजी रातें।
एम हसीन
पंडित मनोहर लाल शर्मा के अंतिम संस्कार में सारा शहर और देहात उमड़ा। हरिद्वार जनपद के नामचीन चेहरों को सामने रखकर अगर देखा जाए तो केवल वही लोग अंतिम संस्कार में नहीं आए जिन्हें या तो पंडित मनोहर लाल शर्मा से किसी न किसी रूप में शिकवा था और वे अपनी इस इंसानी भावना से ऊपर नहीं उठ सके या फिर वे लोग नजर नहीं आए जो इस अवसर पर उपलब्ध नहीं थे। इसका तीसरा कारण मुझे रुड़की की संस्कृति भी लगती है। बहरहाल, यह पंडित मनोहर लाल शर्मा के उस चौरासी साला जीवन की उपलब्धि थी जो उन्होंने रुड़की में जिया था। राजनीति में प्रमाणिकता हासिल करना, अर्थात चुनाव जीतना तो पंडित जी के लिए सपना ही रहा लेकिन अंतिम संस्कार में जुटे लोगों को देखकर माना जा सकता है कि हर किसी को ऐसी सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती जैसी पंडित मनोहर लाल शर्मा को मिली।
मेरा मानना है कि पंडित जी ने जीवनभर जो संघर्ष किया उसे लोग भूले नहीं; सिवाय पत्रकारों के। यही इस पूरे मामले का सबसे दुखद पक्ष यह रहा कि पंडित मनोहर लाल शर्मा की दुनिया से यह विदाई मीडिया में कोई खास स्थान नहीं पा सकी। मीडिया में केवल एक खबर शुरुआती दौर में उनके निधन की आई और फिर बात खत्म हो गई। यह स्थिति इसलिए पीड़ादायक है क्योंकि पंडित मनोहर लाल शर्मा मीडियाकर्मियों से घिरे रहने वाले लोगों में एक थे। कितने ही धुरंधर पत्रकार उनकी छत्रछाया में जमीन से उठकर आसमान तक पहुंचे, कितनों ही को उन्होंने अपने कॉलेज में नौकरी दी, कितनों को उनके प्रभाव के चलते डिग्री कॉलेजों में प्राचार्य तक की नौकरी मिली, कितने ही पत्रकारों की तो उनके अखबारों में नौकरी ही पंडित जी के आशीर्वाद से बनी हुई थी, कितनों ही को वे रेगुलर विज्ञापन का योगदान देते थे, कितनों की तो नगर में समाजी हैसियत ही उनके आशीर्वाद से है और कितने तो उनके परिजनों के साथ रोज बैठकर चाय पीने वालों में थे। इस सबके बावजूद 14 जून को अपनी अंतिम सांस लेने वाले पंडित मनोहर लाल शर्मा को लेकर मीडिया में शुरुआती एक खबर के अलावा और कोई चर्चा हुआ हो तो यह मेरी जानकारी में नहीं है।
रुड़की कथित रूप से बुद्धिजीवियों का नगर है। यही कारण है कि यहां संवेदनाओं और भावनाओं का अभाव है। यहां व्यावसायिकता का भी अभाव है। यहां विचारशीलता और कल्पनाशीलता का भी अभाव है। यहां केवल व्यापार फलता-फूलता है। शहर की इस संस्कृति को बनाने या मजबूत करने में पंडित मनोहर लाल शर्मा का अपना कितना योगदान था यह एक अलग बहस का मुद्दा है। अहम बात यह है कि पंडित मनोहर लाल शर्मा ने इसी संस्कृति में जीवन-पर्यंत संघर्ष किया। कतिपय लोग, जो उनके हाल के जीवन को देखते हैं वे यही मानेंगे कि उन्होंने जीवन को बेहतरीन तरीके से जिया। लेकिन मेरी जानकारी भी अलग है और दृष्टिकोण भी अलग है, जिसे खुद पंडित मनोहर लाल शर्मा ही अपने जीवन में “फिलोसॉफिकल पॉइंट ऑफ व्यू” कहा करते थे। इसी “प्वाइंट ऑफ व्यू” के तहत मैं कह सकता हूं कि जितना उनका संघर्ष था, उन्हें उसका एक अंश भी नहीं मिला।
साथ न रहते हुए भी मेरा और पंडित मनोहर लाल शर्मा का साथ 40 से अधिक बरसों का रहा। मैं उन्हें तब से देखता आ रहा हूं जब वे नगला इमरती गांव से बजाज स्कूटर को खुद ड्राइव करके रुड़की कचहरी आते थे। हालांकि तब बजाज स्कूटर ऐसा ही लग्जरी आइटम होता था जैसी आज की प्रदीप बत्रा की डेढ़ करोड़ रुपए की कार। बहरहाल, तब पंडित जी सामाजिक दायित्वों के तहत बी एस एम कॉलेज की गतिविधियों में भी हिस्सा लेते थे। उनकी इसी सोच ने उन्हें एक दौर की नगर की बेहद प्रतिष्ठित शिक्षा संस्था बी एस एम कॉलेज के प्रबंधक और अध्यक्ष प्रबंधक समिति के पद तक तो पहुंचाया, लेकिन उनके सामने अनेक संघर्ष के रास्ते भी खोले। मैं ने उन्हें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए थाने में थानाध्यक्ष से लड़ते हुए भी लगातार देखा है और कचहरी में अपने स्व वर्गीय वकीलों, मजिस्ट्रेटों, राजनेताओं और सत्ता तक से भी लड़ते हुए देखा है। बेशक तब कहीं सत्ता उनका विरोध कर रही थी तो कहीं सत्ता उनके साथ भी खड़ी थी। लेकिन यह उनके अपने संघर्ष का परिणाम था, किसी की खैरात नहीं। एक लंबे संघर्ष के बाद उनके जीवन में ठहराव तो आया लेकिन तब तक माहौल बहुत बदल चुका था और पंडित मनोहर लाल शर्मा भी बहुत बदल चुके थे। तब उन्हें कुछ चापलूसों ने भी घेर लिया था। इससे उनके सामने संघर्ष के नए रास्ते खुले। फिर भी तब तक पंडित मनोहर लाल शर्मा का जीवट निखर चुका था। वे वक्त के साथ पंजा लड़ाकर उसे परास्त कर चुके थे, लाइम लाइट में आ चुके थे। वे जाहिरा तौर पर वक्त से अपनी जिद्द मनवाने का माद्दा हासिल कर चुके थे।
लेकिन फिर भी मैं यही कहना चाहता हूं कि उनके संदर्भ में यह पूर्ण सत्य नहीं है। सच यह है कि पंडित मनोहर लाल शर्मा अपने अभीष्ट को कभी नहीं पा सके। जिस वक्त को उन्होंने अपनी या समाज की समझ में 2002 में हरा दिया था वह वक्त 2002 के बाद उन्हें बार-बार हराता रहा। वक्त चेहरे बदल-बदल कर उनके सामने आता रहा और उनकी निराशा बढ़ती गई। उनकी निराशा की पराकाष्ठा 2022 का वह समय था जब उन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़ दिया था। 80 साल तक खांटी कांग्रेसी रहने के बाद उन्हें कांग्रेस को छोड़ने पर विवश होना पड़ा तो क्या यह उनकी किसी जीत का, उनकी किसी उपलब्धि का दस्तावेज माना जाएगा? नहीं माना जाएगा? मेरी नजर में नहीं माना जाएगा। यह “तू भी बदल फलक की जमाना बदल गया” की तर्ज जैसा वक्त का फैसला था जिसे पंडित मनोहर लाल शर्मा को भी अपने जीवन के अंतिम दौर में स्वीकार करना पड़ा।
जहां तक मेरा सवाल है, मेरी पंडित मनोहर लाल शर्मा से आखरी मुलाकात 2016 में तब हुई थी जब प्रदीप बत्रा कांग्रेस की सरकार को गिराते हुए भाजपा गमन कर गए थे और कांग्रेस ने पंडित मनोहर लाल शर्मा के घर पर प्रेस-कॉन्फ्रेंस की थी। नियति को यही मंजूर था कि वही प्रदीप बत्रा 2022 में पंडित मनोहर लाल शर्मा को भाजपा में लाने में निमित्त बने थे। मेरी उनसे मुलाकातें बहुत कम होती थी, सच यह है कि मुझे उनसे मिलने नहीं दिया जाता था। मुझे पंडित मनोहर लाल शर्मा व्यक्तिगत रूप से बेहद पसंद करते थे और बहुत सम्मान देते थे। यही बात उनके निकट के लोगों को पसंद नहीं आती थी। फिर स्वाभाविक रूप से मेरी उनसे दूरी बनती चली गई। इसका लाभ उठाकर उनके निकट के लोगों ने अनेक बार मुझे “हिट बिलों दी बेल्ट” भी किया। बहरहाल, मेरी निगाह में पंडित जी एक ऐसा व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने जीवन भर अपने संघर्षों को जिया और बदले में जो थोड़ा-बहुत मिला उसे भोगा भी। मिला उन्हें थोड़ा बहुत ही। मसलन उनके मुकम्मल राजनीतिक जीवन की उपलब्धि महज एक बार, 2002 में, कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ना रहा। इसके अलावा उन्हें कांग्रेस से हमेशा निराशा मिली। इसके बावजूद उन्होंने रुड़की में केवल कांग्रेस को ही 2022 तक रुड़की में जिंदा नहीं रखा बल्कि राजनीति को भी जिंदा रखा। जिस दिन उनका भाजपा गमन हुआ था उस दिन नगर में राजनीति का अंत हो गया था। इसे उनके व्यक्तित्व का प्रताप कहा जा सकता है कि वे कांग्रेस में थे रुड़की में राजनीति थी। वे भाजपा में गए तो नगर में राजनीति भी समाप्त हो कर रह गई। लेकिन बात और भी है। जितने लोग पंडित मनोहर लाल शर्मा के अंतिम संस्कार में जुटे उसे देखकर कहा जा सकता है कि पंडित मनोहर लाल शर्मा को भले ही जीवन-पर्यंत राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए इंतेज़ार करना पड़ा रहा हो लेकिन उनकी राजनीतिक-सामाजिक प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं थी। अंतिम संस्कार में जुटी भीड़ ने दिखाया कि वे संघर्ष से निकले ऐसे लीजेंड थे जो सब नहीं बन सकते। उनके चहेते पत्रकार उन्हें किस रूप में श्रद्धांजलि देते हैं यह उनका काम है, इन पंक्तियों के रूप में मेरी उन्हें इस अहद के साथ श्रद्धांजलि, कि उनके संघर्षों को कोई याद रखे या न रखे, मैं जरूर रखूंगा। और जितना मैं ने उन्हें देखा, जाना और समझा है, उस पर आगे भी लिखता रहूंगा।