सवाल तीर्थ यात्रियों के लिए व्यवस्था बनाने का ही नहीं बल्कि प्रतिवर्ष होने वाली अरबों की आय का भी है
एम हसीन
पीरान कलियर। इस तीर्थ स्थल पर पाठक क्या समझते हैं कि प्रतिवर्ष कितने रुपए की आय होती होगी? करोड़ों रुपए जो तीर्थ प्रबंध व्यवस्था अपने विभिन्न ठेकों से उगाहती है उसके अलावा करोड़ों रुपये तीर्थ से जुड़ी सभी दरगाहों को दान के रूप में मिलते हैं। दान के मामले में यहां तमाम प्रकार के भ्रष्टाचार होते हैं, तमाम प्रकार की घपलेबाजियां होती हैं। करोड़ों रुपए कर्मचारियों की, फर्जी सूफियों की, जुगाड़बाजों की, जेब में चले जाते हैं। इसके बावजूद करोड़ों रुपए प्रतिवर्ष दरगाह के दानपात्रों से भी निकलते ही हैं। लेकिन असल मसला यह नहीं है। असल मसला यह है कि जितना दान दरगाह को मिल जाता है उससे ज्यादा दान वापिस चला जाता है, दान दाता को कोई रास्ता ही नहीं दिखता कि वह जो दान की रकम लेकर आया है उसे वह कैसे और कहां खर्च कर सके। मसलन, मुझे एक सूफी ने बताया कि एक श्रद्धालु यहां कुछ काम कराना चाहता था। उसे सलाह दी गई कि वह दरगाह के मुख्य दरवाजों पर चांदी मंढवा दे। बात दरगाह प्रबंधन से अनुमति लेने की दिशा में गई और वहां ऐसी शर्त रखी गई कि श्रद्धालु चुपचाप वापिस लौट गया।
दरअसल, इस श्रद्धालु को कहा गया कि वह दान राशि दरगाह दफ्तर में जमा करा दे और प्रबंध व्यवस्था खुद यह काम कर देगी। अब श्रद्धालु को यहां अगर कुछ होता हुआ नजर आता तो शायद वह धन जमा करा देता। लेकिन यहां तो कुछ होता ही नहीं। जो होता है वह पूर्ण नहीं होता। मसलन, एक श्रद्धालु ने दरगाह की बड़ी मस्जिद के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया था। विवाद इतना हुए कि उसे बीच में ही काम रोक कर भागना पड़ गया। काम आज भी अधूरा देखा जा सकता है। खुद दरगाह प्रबंध व्यवस्था ने 2006-07 में यहां दो यात्री गृह बनाना शुरू किए थे। दोनों आज भी अधूरे देखे जा सकते हैं। जब स्थिति ऐसी हो तो फिर तीर्थ पर सिवाय विवादों के, भ्रष्टाचार के, यथास्थितिवाद के और असुविधाओं के क्या होता हुआ नजर आ सकता है? यही यहां दिखाई देता है। ऐसे में सवाल यह है कि समस्या का हल क्या है? समस्या का एक हल जानकर लोग यह बताते हैं कि यहां की व्यवस्था एक व्यक्ति, जो कि प्रबंधक है, पर निर्भर करने की बजाय एक समिति पर निर्भर करे और वह समिति स्वायत्तशासी हो, अधिकार संपन्न हो, उसका अपना बायलॉज हो।
यह विचार नया नहीं है। पहले से ही यह विचार उठता रहा है कि तीर्थ स्थल की व्यवस्था के लिए एक स्वतंत्र बायलॉज बने। ध्यान रहे कि देश में ऐसे बायलॉज पहले से ही हैं। जैसे अजमेर की दरगाह व्यवस्था के लिए ख्वाजा एक्ट है, उत्तर प्रदेश की दरगाह देवा शरीफ की व्यवस्था के लिए भी अपना एक्ट है। उत्तराखंड में हरकी पैड़ी की व्यवस्था के लिए गंगा सभा बनी हुई है और उसका अपना बायलॉज है।
दरगाहों के लिए बायलॉज का होना एक आम बात होने के बावजूद अगर कलियर के लिए अलग एक्ट बनता है तो यह एक बड़ी घटना, बड़ी उपलब्धि के तौर पर गिनी जाएगी। ऐसी उपलब्धि हासिल करने के लिए कोई मजबूत इरादों की सरकार चाहिए जो कि फिलहाल राज्य में काम कर रही है। लक्सर विधायक और राज्य वक्फ बोर्ड के सदस्य हाजी शहजाद ने कलियर की व्यवस्था को लेकर विधानसभा में सवाल उठाया था। तब उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को “धाकड़ धामी” कहकर संबोधित किया था कहा था कि, “धामी कर सकते हैं, उनमें माद्दा है, इसलिए उनसे मांग की जा रही है कि वे तीर्थ क्षेत्र कलियर के लिए कुछ करें।” यह लक्सर विधायक का भी विचार है और समाज के समग्र वर्ग का भी कि मौजूदा सरकार फैसले लेने वाली सरकार है। इसलिए वह चाहे तो वह कलियर को भी “साबिर एक्ट” दे सकती है। सवाल यह है कि क्या देगी?