क्या अब जाकर मैच्योर हुए हैं सहारनपुर सांसद क़ाज़ी इमरान मसूद?
एम हसीन
सहारनपुर। सहारनपुर के संसद सदस्य (लोकसभा) क़ाज़ी इमरान मसूद इन दिनों खासी सुर्खियां बटोर रहे हैं। वे सामाजिक सद्भाव और आपसी भाईचारे के बड़े अलंबरदार के तौर पर उभर रहे हैं और अहम यह है कि भले ही लोग उनकी सक्रियता और मुखरता को राजनीतिक चश्मे से देखें, दर हकीकत यह सक्रियता सामाजिक चश्मे से देखे जाने लायक मानी जा रही है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में इमरान मसूद पिछले दो दशकों से एक बेहद जाना पहचाना चेहरा हैं। जहां तक सवाल उनके राजनीतिक अभियान का है तो उसे तो इस नजरिया से देखा जा सकता है कि वे फिलहाल कांग्रेस के सांसद हैं, लेकिन वे उत्तर प्रदेश में प्रभाव रखने वाली बहुजन समाज पार्टी में भी रह चुके हैं और समाजवादी पार्टी में भी। कांग्रेस की राजनीति में भी उनका यह दूसरा दौर है। सच तो यह है कि राजनीतिक दलों में उनका आना-जाना आम ही है।
इसका एक कारण यह है कि उन्होंने अपना राजनीतिक सफर सहारनपुर नगर निकाय का चुनाव निर्दलीय जीतकर शुरू किया था और पहली बार विधायक भी वे निर्दलीय ही चुने गए थे। जाहिर है कि उन्हें जनता की राजनीति करने का अनुभव है और जनता पर उनकी पकड़ भी है। यही चीज उन्हें बिंदास बनाती है और किसी हद तक बेखौफ भी। वे कम से कम अपने प्रभाव के क्षेत्र में राजनीतिक दल को अपने तरीके से चलाना चाहते हैं और जो दल उन्हें फ्री हैंड नहीं देता उसकी राजनीति नहीं करते। फिर सही रहेगी अपने व्यक्तिगत राजनीति को हर हाल में कायम रखने के लिए वे बयान भी बेखौफ देते हैं। जैसे इन दिनों वे देशभर की राजनीति को प्रभावित कर वफ्फ बोर्ड (संशोधन) अधिनियम पर सदन के भीतर खुलकर बोल रहे हैं तो सदन के बाहर उन सभी मुद्दों पर बोल रहे हैं जो उत्तर प्रदेश में प्रभावी हैं। मसलन, नवरात्रों में मांसाहार पर उन्होंने मुसलमानों से स्पष्ट कहा है कि “अगर दस दिन मांस नहीं खाओगे तो मर नहीं जाओगे।” उन्होंने कहा है कि “मिश्रित समाज में सबकी भावना का ध्यान रखा जाना चाहिए। अगर मुसलमानों के महज 10 दिन शाकाहार अपना लेने से सामाजिक सद्भाव बनता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है।” इसी प्रकार उन्होंने कहा है कि सहारनपुर रेलवे स्टेशन का नाम “शाकुम्भरी देवी के नाम पर रखा जाना चाहिए।” ध्यान रहे कि शाकुम्भरी देवी सहारनपुर जिले के भीतर सनातनधर्मियों की धार्मिक आस्था का एक बड़ा केंद्र है। अहम यह है कि इन दिनों वे अपने ऐसे ही बयानों को लेकर सुर्खियां बटोर रहे हैं और स्वाभाविक रूप से ये बयान समग्र समाज में पसंद भी किए जा रहे हैं।
लेकिन यह भी सच है कि ये बयान खुद क़ाज़ी इमरान मसूद की अपनी छवि के बिल्कुल उलट हैं। सच यह है कि उन्हें फायर ब्रांड नेता के रूप में जाना जाता है जो मुसलमानों के मुद्दों को आक्रामकता से उठाते आए हैं। 2019 में तो उनका एक बयान ऐसा आया था जिसने एक वर्ग की निगाह में उन्हें नफरत का सौदागर बना दिया था, जबकि उनके आज के बयान मुहब्बत की पैरोकारी के रूप में देखे जा रहे हैं। इसलिए कई लोग तो कहते हैं क़ाज़ी इमरान मसूद अब जाकर मैच्योर हुए हैं जबकि कुछ लोग कहते हैं वे पहले से ही मैच्योर हैं और उनकी आज की राजनीतिक जरूरत वही है जो वे बोल रहे हैं। बहरहाल, हो चाहे कुछ भी लेकिन सामाजिक सद्भाव की दिशा में उनके बयानों को स्वीकार किया जा रहा है और इसे एक राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक मसले के रूप में स्वीकार किया जा रहा है।