पत्रकारों की बोर्ड एंट्री बैन मामले में अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए भी तैयार नहीं नगर विधायक
एम हसीन
रुड़की। मसला यह नहीं है कि जो किया वह गलत था या सही था, मसला यह है कि नगर विधायक प्रदीप बत्रा अपने किए के औचित्य पर, उसकी आवश्यकता पर बात भी करने को तैयार नहीं हैं, अपनी स्थिति भी स्पष्ट करने को तैयार नहीं हैं। उल्टे उनके समर्थक उनकी “विकासवादी” सोच को लेकर जो तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं वे इस बात का इशारा दे रहे हैं कि प्रदीप बत्रा अपने स्टैंड पर कायम हैं। जाहिर है कि मसला प्रेस को नगर निगम बोर्ड की बैठक से बाहर करने का ही है। इस पर पत्रकारों का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। उनके प्रति विभिन्न पत्रकार और राजनीतिक-सामाजिक संगठनों का समर्थन भी लगातार बढ़ता जा रहा है। विधानसभा चुनाव में उनके भावी विरोधी, पार्टी के भीतर उनके प्रतिस्पर्धी पत्रकारों के अभियान को नए आयाम दे रहे हैं। विधासभा चुनाव की पूर्व संध्या पर यह स्थिति उस मौजूदा जन-प्रतिनिधि के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं जिसका सपना निकट भविष्य में प्रत्याशी होने का भी है।
प्रेस को छेड़ना किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए भिड़ के छत्ते में हाथ डालने जैसा साबित होता आया है। इस सच से प्रदीप बत्रा नावाकिफ हों ऐसा नहीं है। फिर भी उन्होंने बोर्ड बैठक में पत्रकारों की एंट्री न केवल बैन करने का इनिशिएटिव लिया बल्कि एंट्री के लिए अड़े कई जिद्दी पत्रकारों को उन्होंने धकियाकर बाहर निकालने से भी परहेज नहीं किया। उनकी विडंबना यह है कि उन्होंने ऐसा उस समय किया जब रुड़की में भाजपा उच्च स्तरीय गुटबाजी की राजनीति का मोहरा बनी हुई है, जब निगम चुनाव जीतने के बाद भाजपा नगर में प्रदीप बत्रा से अलग हटकर कुछ सोचने की स्थिति में भी आ गई है। मसलन, एक ओर पार्टी के राज्यसभा सांसद डॉ नरेश बंसल यहां विकसित भारत-विकसित उत्तराखंड की प्रदर्शनी का आयोजन अपने स्तर पर करके मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों के मेजबान बन रहे हैं, दूसरी ओर पार्टी जिलाध्यक्ष पद पर नियुक्ति का मामला अभी भी अटक रहा है। इस सबके बीच जब यह 2027 विधानसभा चुनाव में प्रदीप बत्रा के राजनीतिक प्रदर्शन का गुणा-भाग किया जा रहा है तब चर्चा के रूप में यह तथ्य भी उभरकर सामने आ रहा है कि हकीकत में तो पार्टी के भीतर प्रदीप बत्रा की उम्मीदवारी पर चर्चा तक नहीं है; यानि हो सकता है कि पार्टी उन्हें अपना टिकट ही न दे।
ये सब परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें अगर किसी का वजूद खतरे में है तो वे प्रदीप बत्रा ही हैं। प्रदीप बत्रा ही हैं जो डॉ नरेश बंसल के सक्रिय होने के बाद अपने ही नगर में सत्ता के स्तर पर खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। वे प्रदीप बत्रा ही हैं, पार्टी जिलाध्यक्ष नियुक्ति के मामले में जिनकी राय की कोई विशेष, कोई महत्वपूर्ण अहमियत नहीं रह गई है। वे प्रदीप बत्रा ही हैं जिनकी राजनीतिक हैसियत निगम चुनाव में पार्टी की जीत के बाद नगर में 40 प्रतिशत आंकी जाने लगी है। ऐसे में प्रदीप बत्रा का एक्सट्रीम प्रेशर में आ जाना और राजनीति का टोटल फोकस अपने ऊपर बनाने के लिए प्रेस को छेड़ बैठना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। जाहिर है कि उनके इस एक कदम ने डॉ नरेश बंसल की प्रदर्शनी और मीडिया के बीच एक दीवार खींची। मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री के आगमन तक का कवरेज स्थानीय मीडिया ने नहीं किया। साथ निगम बोर्ड बैठक के मुद्दों की जानकारी भी व्यापक रूप से जनता तक नहीं पहुंची। उस दरम्यान मीडिया के फोकस में सिवाय प्रदीप बत्रा के कोई और नहीं आया, भले ही यह फोकस नकारात्मक है।