बढ़िया प्रदर्शन बचा सकते हैं अपनी विरासत और बसपा का वजूद

 

एम हसीन

मंगलौर। विधायक पिता सरवत करीम अंसारी के उत्तराधिकारी के रूप में बसपा टिकट के हकदार बने ओबेदुर्रहमान अंसारी उर्फ मोंटी फिलहाल कड़ी परीक्षा का शिकार हैं। सनातन काल से जैसा मंगलौर का हाजी बनाम क़ाज़ी के जलवे का मिजाज रहा है और कभी क़ाज़ी तो कभी हाजी जीतते रहे हैं तो; अगर मोंटी ऐसा ही चुनाव परिणाम देने में कामयाब रहे तो चुनाव चाहे न भी जीतें, अपनी विरासत को तो बचा ही लेंगे, लीडर भी बन जायेंगे। ठीक ऐसी ही परीक्षा बसपा संगठन और विचारधारा की भी है। अगर मोंटी जीत गए तो यह मैसेज पूरे देश में बसपा का हौसला बढ़ाने वाला साबित होगा। लेकिन अगर परिणाम में कोई बदलाव आया तो न केवल मोंटी के करियर पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा, बसपा भी लंबे समय तक के लिए रसातल में चली जायेगी।

हाजी सरवत करीम अंसारी को उनके जीवन काल में उन्हीं की बिरादरी में अक्सर चुनौतियां मिलती रही हैं। कभी नफीस अंसारी तो कभी कलीम अंसारी के रूप में यहां नगर क्षेत्र में अंसारी चेहरे नगर पालिका अध्यक्ष भी बनते रहे हैं। लेकिन ऐसा कोई चेहरा कभी चेयरमैन नहीं बन पाया जिसे खुद हाजी सरवत करीम अंसारी का ही आशीर्वाद न मिला हो; हालांकि अतीत में ऐसी कोशिश कलीम अंसारी से लेकर जमीर हसन अंसारी और मीर हसन अंसारी तक कई लोगों ने की और मात खाई। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा और कभी बसपा में रहकर हर अंसारी चेहरे ने हाजी सरवत करीम अंसारी से अलग अपनी आजाद पहचान बनाने की कोशिश की, मगर कामयाब कोई नहीं हुआ। यही कारण है कि आज भी निकाय चुनाव लड़ने के इच्छुक एक आध अंसारी को छोड़कर सब अंसारी चेहरे हाजी के देहांत के बावजूद हाजी के प्रति निष्ठा बनाए हुए हैं। उन्हें मालूम है कि इस आखिरी अवसर पर हाजी के वारिस के रूप में मोंटी अगर प्रभावशाली चुनाव लड़ने में कामयाब होते हैं तो यह न केवल मोंटी के बल्कि सभी अंसारी नेताओं के अपने अस्तित्व के लिए संजीवनी बनेगा; अन्यथा सब को उस विरासत को खोना पड़ेगा जिसे 60 के दशक में सईद अंसारी ने स्थापित किया था और जिसे हाजी सरवत करीम अंसारी ने जीवनभर कायम रखा था। अहम बात यह है कि यह भावना फिलहाल तक अंसारी चेहरों से लेकर अंसारी बिरादरी में भी दिखाई दे रही है।

इसी भावना को दलितों के बीच यह कहकर मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है कि यहां अगर बसपा जीती तो इसका संदेश पूरे देश में जायेगा; जो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भी पार्टी को मजबूत बनाने का काम करेगा। लेकिन यह अभी जाहिर नहीं है कि दलित इस भावना को स्वीकार कर रहे हैं या नहीं। हालांकि पार्टी प्रदेश अध्यक्ष शीशपाल मोंटी के साथ जुटे हुए हैं। लेकिन उनकी कामयाबी का रिपोर्ट कार्ड अभी उस तरह सार्वजनिक नहीं हो रहा है जिस प्रकार अंसारी बिरादरी का हो रहा है। अर्थात, अंसारी मुखर है लेकिन दलित खामोश है।

मंगलौर नगर को लेकर दो सच्चाइयां अभी तक रही हैं। एक, यहां अभी तक भाजपा के लिए कुछ नहीं रहा है और दूसरा यह कि यहां कांग्रेस प्रत्याशी क़ाज़ी निजामुद्दीन का अगर समर्थन मजबूत है तो उनका विरोध भी मजबूत है। सैय्यद अली हैदर जैदी, खलील अहमद और अमजद उस्मानी जैसे तमाम लोग हैं जो बसपा के समर्थक इतने नहीं हैं जितने क़ाज़ी निजामुद्दीन के विरोधी हैं। बेशक इनमें भाजपा को शायद ही कोई वोट डलवाना पसंद करे या न डलवा सके, लेकिन मोंटी अगर इन्हें अपनी मजबूती का अहसास करा पाए तो 2022 वाला ही परिणाम देने के लिए अपनी जान भी लड़ा सकते हैं। यह पक्का है कि यहां जो हाल मोंटी का होगा, वही बसपा का होगा। वो ही हाल अंसारी राजनीति का होगा और वो ही दलित राजनीति का होगा।