अजीब मिजाज है शिक्षा नगरी, इंजीनियर नगरी, बुद्धिजीवियों की नगरी रुड़की का भी

एम हसीन

रुड़की। विधायक का पद सत्ता का प्रतीक होता है। विधायक की भूमिका सरकार बनाने से लेकर सरकार चलाने तक में होती है। यही कारण है कि विधायक का उदय अपने निर्वाचन क्षेत्र में होता है मगर उसकी कर्मभूमि राज्य की राजधानी बनती है। इसी कारण विधायक को वेतन भी मिलता है और भत्ते भी मिलते हैं। लेकिन मेयर के साथ ऐसा नहीं होता। मेयर की कोई भूमिका न सरकार बनाने में होती है और न ही उसे चलाने में। उसका राज्य की राजधानी में भी कोई काम नहीं होता। इसी कारण मेयर पद को ऑनरेरी पद माना गया है। उसके लिए वेतन तो क्या कोई मानदेय भी नहीं होता। लेकिन अपने निर्वाचन क्षेत्र में उसकी भूमिका विधायक से कहीं अधिक बड़ी, कहीं अधिक महत्वपूर्ण और कहीं अधिक निर्णायक होती है। वह अपने सदन का नेता होता है, फिर भी उसका पद सत्ता का प्रतीक नहीं होता बल्कि गरिमा का प्रतीक होता है। निगम के वित्त पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता लेकिन नगर का विकास उसी की पहल पर होता है, उसी की अध्यक्षता में होता है। दोनों पदों के बीच का यही अंतर समाज के अग्रणी लोगों को अपनी राह चुनने के लिए प्रेरित करता है। जिन लोगों की कोई सोच अपने शहर को लेकर होती है वे निकाय की राजनीति करते हैं और जिनकी सोच व्यापक मुद्दों को लेकर होती है वे विधान सभा की राजनीति करते हैं। इससे भी बड़ी सोच हो तो लोकसभा और राज्यसभा की राजनीति होती है।

लेकिन क्या इस अंतर को समझा जाता है? इसे नगर के पिछले 10 साल के राजनीतिक इतिहास में देखा जा सकता है। इतिहास यह है कि 2008 में निकाय प्रमुख बने प्रदीप बत्रा 2012 में विधायक चुन लिए गए थे, वह भी राष्ट्रीय पार्टी के टिकट पर। केवल इतना ही नहीं। जब सुरेश जैन विधानसभा का चुनाव हार गए थे तो एक वर्ग ने उन्हें 2013 में मेयर पद का प्रत्याशी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बहरहाल, लगातार सभासद और पार्षद से प्रमोट होकर 2013 में मेयर बने यशपाल राणा ने 2022 में विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। 2019 में मेयर बने गौरव गोयल का 2012 के विधान सभा चुनाव से ही हर विधानसभा और हर मेयर टिकट पर दावा बना हुआ था। अंत में वे मेयर निर्वाचित हुए थे। मयंक गुप्ता 2002 के पहले विधान सभा चुनाव में टिकट के दावेदार के रूप में उभरे थे। फिर 2003 में निकाय प्रमुख के दावेदार के रूप में भी उभरे थे। एक बार उन्होंने लोकसभा टिकट पर भी विचार किया था। फिर वे हर चुनाव में टिकट के दावेदार रहे और अंत में 2019 में पार्टी ने उन्हें मेयर का टिकट दिया। फिलहाल कांग्रेस में मेयर टिकट के सबसे प्रबल दावेदार और जनता के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय चेहरे सचिन गुप्ता ने 2019 में कांग्रेस का मेयर टिकट भी मांगा था, 2022 में विधान सभा टिकट भी मांगा था अब फिर वे मेयर का भी टिकट मांग रहे हैं लेकिन उनकी तैयारी 2027 के विधान सभा टिकट तक की है।

यह कमाल है। जब किसी को कचहरी में काम होता है तो वह अपने काम की नौयियत के हिसाब से वकील के पास जाता है। क्रिमिनल मैटर है या सिविल है या रेवेन्यू है। टैक्स में भी इनकम टैक्स है या जी एस टी है। यूं स्पेशलिस्ट में भी सुपर स्पेशलिस्ट तलाश किया जाता है, योग्य और अनुभवी वकील तलाश किया जाता है। स्कूल में बच्चे का एडमिशन कराने के लिए बेहतरीन स्कूल तलाश किया जाता है। लेकिन जहां जीवन का सवाल होता है तो अलामत बहुत गंभीर ही न हो तो स्पेशलिस्ट डॉक्टर छोड़िए सिंपल एम बी बी एस को नजर अंदाज कर दिया जाता है। मेडिकल स्टोर से ही बट्टी लेकर काम चला लिया जाता है। यही राजनीति में हो रहा है। फिर जो हो रहा है वह होना क्या बड़ी बात है। हो क्या रहा है? जान लीजिए।

2013 से पहले रुड़की निकाय नगर की सीमाओं में, जिसमें रुड़की राजस्व ग्राम का बाहर हदूद क्षेत्र भी शामिल नहीं था, मात्र तक सीमित था जबकि अब उसकी हदों में आधा दर्जन गांव भी शामिल हो गए हैं। लेकिन आबादी के इस विस्तार के अलावा पिछले 10 साल में क्या हुआ? कड़वा सच है कि कहीं कुछ नहीं हुआ है। वही टूटी सड़कें हैं, वे ही कीचड़ आलूद गलियां हैं, वही बरसती पानी में डूबती उतरती आबादी है, वही हर दम जाम का शिकार रास्ते हैं। न ट्रैफिक को लेकर कोई प्लानिंग हुई और न ही नगर के भीतर नए गंग नहर पुलों को लेकर, न नए रास्तों की संभावना पर विचार हुआ और न ही रिंग रोड या फ्लाई ओवर जैसी किसी सुविधा पर चर्चा हुई। हद यह है कि चौतरफा बायपास बन जाने के चलते बाहरी लोगों से बिलकुल कटते जा रहे रुड़की नगर के लिए “डेस्टिनेशन रुड़की” जैसा कोई विचार तक अस्तित्व में नहीं आया। सौंदर्यीकरण को लेकर कोई योजना तक नहीं बनी, न ही किसी आवासीय कॉलोनी को लेकर कहीं सुगबुगाहट सुनाई दी। गरज यह कि जनता पर केवल टैक्सों की मार बढ़ी। नगर पालिका परिषद के रूप में जो निकाय जनता के लिए “सेवा केंद्र” होता था, वह नगर निगम के रूप में “सुविधा विक्रय केंद्र” बन गया। इन दस सालों में यहां का निकाय प्रमुख नगर पालिका अध्यक्ष की बजाय मेयर कहलाने लगा लेकिन मेयर पद की गरिमा किस रूप में नगर पालिका अध्यक्ष पद से अधिक बढ़ गई यह कोई नहीं बता सकता। पहले काउंसलर यहां सभासद कहलाते थे अब पार्षद कहलाते हैं लेकिन पार्षद किस रूप में सभासद से बड़े हो गए, ऐसा अगर कुछ हुआ भी होगा तो कभी जाहिर नहीं हुआ। जो कुछ जाहिर हुआ वह नकारात्मक ही है। मसलन, नगर के इतिहास में पहले ही मेयर को सभासद के साथ मारपीट के आरोप में जेल जाना पड़ा था और दूसरे ही मेयर को तमाम प्रकार के आरोपों, जांचों और मुकद्दमों का शिकार होकर साढ़े तीन साल में ही पद से इस्तीफा देना पड़ा। नगर के लोगों के लिए यह सब सोचने का मसला है।