प्रदेश की राजनीति में अहम भूमिका निभाने को तैयार मंगलौर विधायक

एम हसीन

मंगलौर उप चुनाव को लेकर इन पंक्तियों के लेखक ने 13 जून को अपनी पहली ही रिपोर्ट में लिखा था कि “क़ाज़ी निज़ामुद्दीन अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव के रूबरू हैं।” यह चुनाव उनके लिए “करो या मरो” की हैसियत रखता था। बाद में 10 जुलाई को हुए मतदान तक जो कुछ मंगलौर में हुआ, 13 जुलाई को जो परिणाम सामने आया, और जो अब आगे आने जा रहा है, उसने हर स्तर पर “परम नागरिक” के प्रथम पृष्ठ पर 13 जून को प्रकाशित हुई रिपोर्ट की सच्चाई को रेखांकित किया। और अब लगता है उत्तराखंड कांग्रेस की राजनीति नई करवट ले रही है। महसूस हो रहा है कि कुछ आमूल चूल परिवर्तन होने जा रहा है, जिससे केवल कांग्रेस की ही नहीं बल्कि राज्य की समूची राजनीति का उल्लेखनीय रूप से प्रभावित होना लाजमी होगा और इसकी बुनियाद रखी जा रही है मंगलौर उप चुनाव परिणाम के बाद की राजनीति से।

गौरतलब है कि क़ाज़ी निज़ामुद्दीन अपनी परंपरागत सीट मंगलौर पर छठा विधानसभा चुनाव लड़कर चौथी बार जीत गए हैं। पिछले 5 चुनाव में से वे तीन बार जीते थे और दो बार हारे थे। पांचों चुनाव सामान्य थे, जिनमें, 2012 में और 2022 में, दोनों ही बार यह सामान्य सोच काम कर रही थी कि सूबे में कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है। 2012 में भले ही सरकार कांग्रेस की नहीं बनी थी लेकिन बनी कांग्रेस के ही नेतृत्व में थी। तब बसपा के तीन, निर्दलीय तीन और उत्तराखंड क्रांति दल के एक विधायक ने एकत्रित होकर संयुक्त लोकतांत्रिक गठबंधन बनाकर कांग्रेस को समर्थन दिया था और विजय बहुगुणा के नेतृत्व में सरकार बनी थी। लेकिन तब क़ाज़ी निज़ामुद्दीन इन अर्थों में दुर्भाग्यशाली साबित हुए थे कि वे अपना विधानसभा चुनाव ही हार गए थे। यही कारण है कि वे राज्य की राजनीति में कोई भूमिका नहीं निभा सके थे। अलबत्ता अपनी समृद्ध पारिवारिक राजनीतिक परंपरा के तहत वे कांग्रेस हाई कमान के संपर्क में आए थे और दिल्ली में उनका हस्तक्षेप बढ़ गया था। उन्हें इस बात का कहीं न कहीं लाभ मिला था कि चुनाव में उनके हितों के खिलाफ काम करने का आरोप तत्कालीन हरिद्वार सांसद और केंद्रीय मंत्री हरीश रावत पर लगा था। स्वाभाविक रूप से तब की 24 अकबर रोड की कांग्रेस में हरीश रावत विरोधी लॉबी का संरक्षण क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को मिल गया था। 2017 के विधानसभा चुनाव परिणाम में जब कांग्रेस के लिए राजनीति में कोई स्थान बाकी नहीं बचा था, जब मुख्यमंत्री रहते हुए खुद हरीश रावत दो सीटों पर चुनाव हार गए थे, तब क़ाज़ी निजामुद्दीन मंगलौर की अपनी सीट बसपा से वापिस हासिल करने में कामयाब हो गए थे।

इस उपलब्धि ने उन्हें दिल्ली, खासतौर पर राहुल गांधी की, निगाहों में चढ़ा दिया था और वे पार्टी के राष्ट्रीय संगठन में सचिव तथा राजस्थान के सह प्रभारी बना दिए गए थे। तब वे हरीश रावत से एक ही सीढी नीचे थे, जो पार्टी के महासचिव और असम के प्रभारी बनाए गए थे। फिर 2022 के विधानसभा चुनाव में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने अपनी इस बढ़ी हुई राजनीतिक हैसियत का लाभ भी उठाया था। वे मंगलौर सीट पर अपने टिकट को सुरक्षित रखते हुए झबरेड़ा में अपने हनुमान जैसे भक्त वीरेंद्र जाती को क्लियर कट टिकट दिलाने में व उन्हें विधायक निर्वाचित कराने में भी कामयाब हुए थे। इसके अलावा उन्होंने प्रदेश के अन्य टिकटों के निर्धारण में भी अपनी भूमिका निभाई थी। केवल इतना ही नहीं; वे कम से कम हरिद्वार जिले की अन्य सीटों के चुनाव परिणाम को प्रभावित करने में भी कामयाब रहे थे। तब भले ही क़ाज़ी निजामुद्दीन खुद चुनाव हार गए थे लेकिन जिले का ओवरऑल परिणाम कांग्रेस के पक्ष में गया था। पार्टी ने तब झबरेड़ा व हरिद्वार सीट भाजपा से छीन ली थी जब कांग्रेस पूरे प्रदेश में हार रही थी। तब जिले की राजनीति में एक बदलाव यह भी आया था कि बसपा ने भी भाजपा से लक्सर सीट छीन ली थी, जबकि खानपुर सीट भाजपा के हाथ से निकलकर निर्दलीय के हाथ में चली गई थी।

फिर हाल के लोकसभा चुनाव में हालांकि कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा लेकिन 2014 व 2019 के मुकाबले उसके प्रदर्शन में उल्लेखनीय सुधार हुआ, वह भी ऐसे चेहरे के दम पर जिसकी न कोई पहचान थी और न ही कोई छवि। और अब विधानसभा उप चुनाव। उप चुनाव हर राज्य में हर सीट पर सत्तारूढ दल की आन बान शान का सवाल होता है। मंगलौर में भी कुछ तो खुद ब खुद ऐसा था, कुछ कांग्रेस ने और कुछ खुद क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने ऐसा बना दिया था। हालात ये थे कि वे अगर हार जाते तो उनका करियर कांग्रेस में ही खत्म हो जाता। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब वे जीत गए हैं। और जब जीत गए हैं तो जाहिर है कि मंगलौर या हरिद्वार जिले तक तो महदूद रहेंगे नहीं। मैदान तो उनके लिए भी अब पूरा ही प्रदेश होगा।