चुनाव के बाद विकास के पैरोकार बनकर उभरे मंगलौर विधायक
एम हसीन
मंगलौर सीट के मतगणना परिणाम के बाद यह माना जा रहा है कि यहां की राजनीति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया। यहां की “काजी बनाम हाजी” फैक्टर की राजनीति में इस बार “संयोग” से भाजपा “हाजी” फैक्टर को तीसरे नंबर पर धकेल कर खुद दूसरे नंबर पर आ गई। यह ऐसा ही है जैसे 2007 में तब हुआ था जब भाजपा ने इस फैक्टर को खत्म करने के लिए इस सामान्य सीट पर अपना टिकट अनुसूचित जाति वर्ग के हरपाल हवलदार को दे दिया था और राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर मैदान में आए चौधरी कुलवीर सिंह को खुलकर खेलने का मौका दिया था। लेकिन तब चौधरी कुलवीर सिंह भी अधिकतम उसी परिणाम तक पहुंच पाए थे जिस परिणाम तक मौजूदा उप चुनाव में करतार सिंह भड़ाना पहुंचे। इसी कारण कोई बड़ी बात नहीं कि 2027 में फिर “क़ाज़ी बनाम हाजी” फैक्टर ही यहां सबसे बड़ा फैक्टर साबित हो। ऐसा हो सकता है। लेकिन जो बदलाव आए वे भी मुलाहिजा हों।
सच यह है कि यहां बदलाव आया है और जबरदस्त आया है। इसे नव निर्वाचित विधायक क़ाज़ी निजामुद्दीन के ही उस ब्यान से समझा जा सकता है जो उन्होंने परिणाम आने के बाद दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक काजी निजामुद्दीन ने कहा कि उन्होंने विकास को लेकर जनता से जो वायदे किए हैं, उनको प्राथमिकता के आधार पर पूरा करने के सब संभव प्रयास किए जाएंगे। उपरोक्त इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि विकास मंगलौर में कभी न तो चुनावी मुद्दा बना और न ही कभी किसी मतदाता ने अपने विधायक से कभी विकास का हिसाब मांगा। यहां की राजनीति का क़ाज़ी बनाम हाजी फैक्टर चूंकि ग्रुप की राजनीति की बुनियाद रखता आया है, मतदाता के बीच लकीर खींचता है, इसलिए यहां अपने समर्थकों के व्यक्तिगत काम को लेकर तो जन प्रतिनिधि जागरूक रहे हैं, सामान्य विकास को लेकर नहीं। यहां तो विधायक निधि को खर्च करने के मामले में भी विधायक की आलोचना होती रही है। अहम यह है कि अगर विकास को मुद्दा बनाकर भाजपा के टिकट पर करतार सिंह भड़ाना पार्टी के ग्राफ को 31 हजार 261 वोटों तक ले जा सकते हैं तो कोई भी प्रत्याशी ले जा सकता है, इससे भी ऊपर तक ले जा सकता है और जीत भी सकता है। यही वह तत्व है जिसे क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने न केवल समझा बल्कि उसे आत्मसात भी किया।
लेकिन बदलाव इससे पहले ही दिखने लगा था। आमतौर पर मंगलौर की राजनीति में मीडिया की भूमिका न के बराबर होती थी। बसपा ने इस बार भी इस परंपरा को कायम रखा; मीडिया से ज्यादा सरोकार नहीं जोड़े। पार्टी के पदाधिकारी तो मीडिया में कहीं दिखे ही नहीं। लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी क़ाज़ी निजामुद्दीन के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। उन्होंने मीडिया का पहले दिन से भरपूर उपयोग अपने पक्ष में किया। दरअसल, चुनाव में उनका समीकरण सबसे अधिक कमज़ोर था। इसी कारण खुद को चुनाव में रखने के लिए उन्होंने पहले दिन से सरकार और प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोला और इस मामले में मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया। क़ाज़ी निजामुद्दीन इस बार जितना मीडिया में दिखे उतना कभी नहीं दिखे। आमतौर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस संस्कृति भाजपा की रही है लेकिन इस मामले में भाजपा पिछड़ी और कांग्रेस ने बेहिसाब प्रेस कांफ्रेंस की। मीडिया में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ज्यादा तवज्जो इस इसलिए भी मिली क्योंकि भाजपा प्रत्याशी के चुनाव प्रबंधकों ने अपने रणनीति कौशल के चलते मीडिया और करतार सिंह भड़ाना के बीच एक दीवार खींच दी, एक खाज पैदा कर दी थी जो अंत तक कायम रही।
इन सारी चीजों का सबसे ज्यादा असर लिब्बेरहेड़ी मामले को लेकर दिखा। सब जानते हैं कि लिब्बेरहेडी में जो कुछ हुआ था वह व्यक्तिगत रूप से बसपा प्रत्याशी मोंटी के साथ हुआ था, उनकी मौजूदगी में हुआ था। इस बिंदु पर मोंटी का नौसीखियापन और मीडिया में उनके कम सरोकार उनके खिलाफ काम कर गए। भाजपा के खिलाफ बसपा के पक्ष में मीडिया की कोई भूमिका सामने नहीं आई। इसके विपरीत घटना के बाद मौके पर पहुंचे क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने मामले का संज्ञान लिया और भरपूर वाहवाही बटोरी। मीडिया ने उन्हें लिब्बेरहेडी मामले के विक्टिम के तौर पर पेश किया। यही मामला चुनाव का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। सुबह ग्यारह बजे घटी इस घटना के बाद चूंकि प्रशासन भी सुरक्षात्मक हो गया था और बसपा का मनोबल भी टूट गया था, तो यहीं से बेहतर समीकरण रखने वाले दोनों प्रत्याशी धराशाई हो गए और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन राजनीति के केंद्र में आ गए। निश्चित रूप से क़ाज़ी निजामुद्दीन ने क्षेत्र के दबंगों के खिलाफ, सत्ता के खिलाफ बोलने की हिम्मत दिखाई और इनाम पाया। यह सब उनके बदले हुए मिजाज का ही परिणाम है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मंगलौर में बदलाव नहीं आया। अब आगे यह बदलाव कहां तक असर दिखाएगा, यह देखने वाली बात होगी।