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प्रधानमंत्री के मंत्र और मुख्यमंत्री की इस नीति को नहीं मानते स्थानीय अधिकारी

एम हसीन

रुड़की। वोकल फॉर लोकल ऐसा मंत्र है जिसके महत्व को समझे जाने की जरूरत है। अगर इसके प्रति जागरूकता न हो तो इसका असर लोकल उत्पाद पर ही नहीं बल्कि लोकल राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक पर पड़ सकता है। यही कारण है कि युवा भाजपा नेता अक्षय प्रताप सिंह ने उसे लेकर अलख जगाई थी। अक्षय प्रताप सिंह ने स्थानीय दुकानदारों से खरीदारी करने के आह्वान के साथ जब दीपावली के समय एक मुहिम छेड़ी थी तब उसका व्यापक स्वागत हुआ था। स्थानीय दुकानदारों ने ही नहीं बल्कि स्थानीय ग्राहकों ने भी इसे सराहा था। तब आम माना गया था कि अगर सारी खरीदारी ऑन लाइन ही होगी तो स्थानीय दुकानदार और स्थानीय उत्पादन के नुकसान का क्या होगा! अक्षय प्रताप सिंह की बात पर विश्वास किया जाए तो उनकी यह मुहिम वैचारिक रूप से आज भी जारी है। वे और उनके सहयोगी आज भी इस अभियान के तहत लोगों को स्थानीय दुकानों से खरीदारी के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

दरअसल, स्थानीयत्व का यह विचार बेहद प्रासंगिक है और मूल रूप से इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “वोकल फॉर लोकल” का मंत्र देकर की थी। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस मंत्र को एक नीति के रूप में अपनाया था। उनकी सरकार स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही है। पिछले महीने जब भाजपा सांसद डॉ नरेश बंसल ने जब रुड़की में “विकसित भारत, विकसित उत्तराखंड” प्रदर्शनी लगाई थी तब स्थानीय उत्पादों का काउंटर अलग से लगाया गया था। मुख्यमंत्री “वोकल फॉर लोकल” को लेकर, स्थानीय लोगों के रोजगार-कारोबार को लेकर इतना संवेदनशील हैं कि उन्होंने अपनी सरकार की तीसरी वर्षगांठ के अवसर पर स्पष्ट घोषणा करते हुए कह दिया कि “10 करोड़ रुपए तक के सरकारी ठेके स्थानीय ठेकेदारों को ही दिए जाएंगे।” यह एक बेहद महत्वपूर्ण घोषणा है, जिसका शासनादेश जारी होने के बाद स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा के नए आयाम खुलने वाले हैं।

लेकिन एक ओर जहां डबल इंजन की सरकार इसे लेकर संवेदनशील हैं वहीं व्यवस्था इसे ठेंगा दिखाने में लगी हुई है। 1947 के बाद से ही स्थानीय लोगों के ऊपर बाहरी लोगों को थोपने की आदी व्यवस्था आज भी अपने ढर्रे पर कायम है। मिसाल सरकारी निविदाओं के प्रकाशन की दी जा सकती है। ध्यान रहे कि नियमानुसार कोई भी 5 लाख रुपए से ऊपर का सरकारी निर्माण या खरीदारी बिना निविदा प्रकाशित कराए नहीं हो सकती, जबकि सरकार को करोड़ों के काम या करोड़ों की खरीदारी करनी होती है। इसके लिए निविदाएं प्रकाशित कराई जाती हैं। ये निविदाएं समाचार-पत्रों में प्रकाशित होती हैं और इसके लिए बाकायदा एक नीति बनी हुई है। लेकिन स्थानीय स्तर पर ऐसे विभाग प्रमुख बिरले ही हैं जो इस नीति का पालन करते हैं। कोढ़ में खाज यह है कि अगर विभाग प्रमुख निविदा प्रकाशित कराना भी चाहें तो विधायक उन्हें ऐसा करने नहीं देते। विधायक विभाग प्रमुख को उसके कार्यालय में ही उसी के अधीनस्थों और ठेकेदारों की मार्फत ऐसा घेर लेते हैं कि वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता।