पिछले बोर्ड पर हमेशा रहेगी उनकी अमिट छाप

एम हसीन

रुड़की। सवाल हाइपोथिटिकल है। अगर रुड़की मेयर पद पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित होता और निवर्तमान पार्षद विवेक चौधरी नगर के नए मेयर चुन लिए जाते तो क्या होता? क्या वे एक ऐसे मेयर साबित होते जिन्हें नियमों-कानूनों का कोई ज्ञान न होता और वे मनमाफिक तरीके से निगम को चलाने की कोशिश करते और इस कोशिश में खुद तो बीच कार्यकाल आरोपित होकर घर बैठते ही, बोर्ड का 5 साल का कार्यकाल भी डिस्टर्ब होता, करोड़ों रुपए का बजट और नगर के 5 साल खराब होते? जैसा कि ऊपर कहा गया है कि सवाल हाइपोथिटिकल है। ऐसा न है और न होने जा रहा है। लेकिन चीजें तो हैं। विवेक चौधरी निवर्तमान पार्षद हैं जिन्होंने अपना कार्यकाल नियमों-परंपराओं के जानकर के रूप में भद्रता से पूरा किया है। वे मार्शल, यानी लड़ाका, कौम से आते हैं फिर भी उनकी भद्रता और नम्रता उनके कार्यकाल में एक उदाहरण बनी है। अभी और आगे भी है। उन्होंने दोबारा पार्षद चुनाव न लड़ने का फैसला स्वेच्छा से लिया है और मेयर टिकट पर भी इसलिए दावा नहीं किया क्योंकि सीट सामान्य वर्ग की है अर्थात दूसरे का अधिकार दबाने का कोई प्रयास उन्होंने बलात रूप से नहीं किया; हालांकि चाहते तो कर सकते थे, क्योंकि सामान्य सीट पर तो कोई भी दावा कर सकता है।

मेयर एक बड़ा पद होता है। रुड़की में मेयर 40 पार्षदों के बोर्ड का अध्यक्ष होता है। निगम क्षेत्र के करीब साढ़े तीन लाख लोगों पर उसका राज होता है। निगम के सैकड़ों कर्मचारी, जिनमें अधिकारी भी होते हैं, एक व्यवस्था के तहत उसके अधीन काम करते हैं। 5 साल में औसत रूप से यहां का निगम एक हजार करोड़ रुपए का बजट खर्च करता है। विवेक चौधरी के सन्दर्भ में सवाल यह है कि अगर वे मेयर होते तो उनकी प्राथमिकता बजट का और व्यवस्था का उपयोग अपने नगर की जनता के लिए सुविधाएं पैदा करने के लिए होती या बजट का जैसा वे चाहते इस्तेमाल करने पर होती? उनके लिए मेयर पद अपने संपत्ति विवाद निपटाने, दूसरे कि संपत्ति दबाने या दूसरे की संपत्ति में विवाद पैदा करके अपनी जेबें भरने पर होता? वे गरिमापूर्ण ढंग से राज्य की व्यवस्था, यथा राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रीगण, शासन व प्रशासन के अधिकारी, के साथ बैठकर जन समस्याओं का कोई निदान सोचने की कोशिश करते या फिर उनसे अपनी व्यक्तिगत फाइलों पर आदेश लेकर अपनी और अपने पद की गरिमा खोते? यहां यह ध्यान रहे कि मेयर एक बड़ा पद होता है। उसका अधिकार क्षेत्र और प्रोटोकॉल बड़ा है।

बात केवल इतनी है कि विवेक चौधरी को यह सब पता होता! पता होता तो उन्हें अपने कर्तव्य भी पता होते, अपनी जिम्मेदारियां भी पता होती। उन्हें यह भी पता होता कि अंतिम प्राप्ति क्या होती है। आखिर यह तो सच है न कि कर्तव्य बोध हो तो अभीष्ट की प्राप्ति भी निर्विवाद होती है। कोई बेवजह किसी सम्मान का अधिकारी नहीं बन जाता।