किसी के लिए आसान नहीं होगा हरीश रावत को चुनौती देना
देहरादून। हरिद्वार संसदीय सीट पर कांग्रेस को कोई भी हल्के में लेने को तैयार नहीं है। सामान्य आंकलन यही है कि पार्टी प्रत्याशी वीरेंद्र रावत ने बहुत अच्छा चुनाव लड़ा है और वे अंत तक चुनावी मुकाबले में कायम रह सकते हैं। अगर तस्वीर यही है और कांग्रेस समर्थक मतदाताओं का यह दावा सच साबित होता है कि वे जीत रहे हैं तो इसका सेहरा, पूर्व मुख्यमंत्री और वीरेंद्र रावत के पिता, हरीश रावत के सिर बंधना लाजमी होगा। यह एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें पार्टी के भीतर किसी के लिए भी “सूबे के सबसे बड़े कांग्रेस नेता” के उनके रुतबे को चुनौती देना आसान नहीं होगा। फिर 2027 के विधानसभा चुनाव की पटकथा भी हरीश रावत का अपने तरीके से लिखना लाजमी होगा।
प्रदेश कांग्रेस में हरीश रावत सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक हैं इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन जहां तक पार्टी की कमान उनके हाथ में आने का सवाल है, वे हमेशा चुनौतियों का सामना करते रहे हैं। तब भी उनके लिए चुनौतियां थीं, जब उत्तराखंड का गठन हुआ था और वे पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने थे और तब भी जब 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्हें अपनों से ही जूझना पड़ा था। बेशक इस मामले में उन परिस्थितियों का भी हाथ था जो विभिन्न चुनाव में उनके सामने आती रही हैं और उन परिस्थितियों का भी जो 2014 के बाद पूरे देश में प्रभावी हुई थीं। अहम बात यह है कि जिन परिस्थितियों में तमाम बड़े कांग्रेसी अपनी सुविधा के मद्देनजर नए रास्तों पर चले गए उन परिस्थितियों से हरीश रावत ने कांग्रेस में रहकर ही जूझा। वे हार जाने का रिस्क लेकर लगातार विधानसभा चुनाव भी लड़ते रहे और लोकसभा चुनाव भी। इस दौरान वे पहाड़ से लेकर मैदान तक और गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक लगातार जनता के बीच भी जाते रहे; वे पार्टी हाई कमान की निगाहों में सम्मान पाते भी रहे और सम्मान गंवाते भी रहे। उन्होंने चुनावी हार के बावजूद वह दौर भी देखा जब उन्हें पार्टी महासचिव की पोस्ट देकर दूसरे राज्यों में प्रभारी बनाकर भेजा गया या पार्टी की ओर से जवाब देने के लिए टी वी चैनलों पर बैठाया गया और वह दौर भी देखा जब उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल ही नहीं किया गया। जाहिर है कि यह एक प्रकार से उनकी उपेक्षा की पराकाष्ठा थी। लेकिन वे न तो अपने कर्म से चुके और न ही अपने लक्ष्य से। इसी का नतीजा उनके पुत्र वीरेंद्र रावत के लिए हरिद्वार संसदीय सीट पर कांग्रेस का टिकट मिलना रहा।
अहम बात यह है कि जिस समय रावत वीरेंद्र के लिए टिकट लेकर आए थे उस समय कोई नहीं मान रहा था कि कांग्रेस यहां चुनाव लड़ भी पाएगी। भाजपा का दावा सीट को 5 लाख से अधिक मतों के अंतर से जीतने का था और वह खोखला नहीं था। न वीरेंद्र रावत के लिए जन समर्थन की कोई संभावना थी और न ही कांग्रेस के लिए। लेकिन फिर हालात बदले और इतना बदले कि मतगणना से पहले ही कांग्रेस विधायक हाजी फुरकान अहमद ने हरीश रावत को ईद मिलन के बहाने दावत दे डाली है। बात यहीं तक सीमित नहीं रही। पिछला लोक सभा चुनाव 2 लाख 60 हजार से अधिक मतों के अंतर से जीतने वाली भाजपा के जो प्रत्याशी 5 लाख से अधिक की जीत का लक्ष्य लेकर चले थे, जो यह दावा कर रहे थे कि क्षेत्र में विपक्ष कहीं है ही नहीं, वे मतदान की समीक्षा करते दिखाई दे रहे हैं। यह जानने में लगे हैं कि कहीं सचमुच स्थिति पूरी तो बदल नहीं गई? इसी से साबित है कि भले ही वीरेंद्र रावत तकनीकी रूप से चुनाव न जीत सकें, भले ही प्रमाण पत्र टी एस आर को ही मिले, लेकिन हरीश रावत राजनीतिक लड़ाई तो जीत भी चुके हैं। यह संघर्ष उन्होंने ही जीता है क्योंकि वीरेंद्र रावत की ओर से चुनाव तो वे ही लड़ रहे थे। ऐसे में अगर वीरेंद्र रावत को प्रमाण पत्र भी मिल गया तो हरीश रावत को कांग्रेस में कौन चुनौती दे पाएगा?