निकाय चुनाव हो तो रुड़की में पार्टी टिकट का किसी के लिए भी नहीं है कोई महत्व?
एम हसीन
रुड़की। इतिहास गवाह है कि राजनीति अगर स्थानीय हो तो रुड़की नगर में राजनीतिक दलों की नहीं चलती। निकाय चुनाव में यहां चलती है पॉलीटिकल ओपिनियन मेकर्स की। 2013 में जब तक वे मेयर नहीं बने थे तब तक यशपाल राणा खुद भी ऐसे ही ओपिनियन मेकर्स में से एक रह चुके हैं। तब तक वे खुद सभासद का चुनाव लड़ते थे लेकिन 2003 में दिनेश कौशिक को निर्दलीय अध्यक्ष बनवाने में और 2008 में प्रदीप बत्रा को निर्दलीय नगर पालिका अध्यक्ष बनवाने में किसी न किसी रूप में उनकी भी अहम भूमिका रही थी। यही कारण है कि 2013 तक जिस ग्रुप की वे राजनीति करते थे उस ग्रुप ने उन्हें ही आगे कर दिया था और वे निर्दलीय मेयर निर्वाचित हो गए थे। इन्हीं यशपाल राणा के विषय में एक ओपिनियन मेकर, जो खुद रुड़की महानगर क्षेत्र का निवासी नहीं है लेकिन महानगर की राजनीति को प्रभावित करने की हैसियत रखता है, ने कल दावा किया कि “रुड़की में आसन्न निकाय चुनाव में यशपाल राणा से बेहतर चुनाव कोई और नहीं लड़ पाएगा। वे भले ही पार्टी के टिकट पर लड़ें या निर्दलीय लड़ें लेकिन किसी के भी सामने मुकाबले के प्रत्याशी वे ही होंगे, क्योंकि फिलहाल रुड़की नगर की राजनीति में एक ओर यशपाल राणा हैं और एक ओर नगर की समूची राजनीति।”
उपरोक्त ओपिनियन मेकर का यह दावा अपनी ओपिनियन को मजबूत बनाने की, उसे नीचे तक पहुंचाने की रणनीति भी हो सकती है और सच भी हो सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या खुद यशपाल राणा के लिए यह तसल्ली काफी है कि वे एक और मजबूत चुनाव लड़ें और हार जाएं? उनके अपने और उनके समर्थक मतदाता के लिए क्या अब यह जरूरी नहीं है कि इस बार उनका चुनाव जीत का होना चाहिए? इसी कारण अब दरअसल, सवाल उस समीकरण का है जो यशपाल राणा ने निर्दलीय प्रत्याशी रहते हुए 2013 में तो बनाया था लेकिन जो वे कांग्रेस प्रत्याशी रहते हुए न तो 2019 के निकाय चुनाव में बना पाए थे और न ही कांग्रेस प्रत्याशी ही रहते हुए 2022 के विधानसभा चुनाव में।
जब मसला निकाय चुनाव का हो तो इस बात का कोई मतलब नहीं है कि यशपाल राणा कांग्रेस प्रत्याशी होंगे। रुड़की में किसी दलीय प्रत्याशी की जीत की संभावना न के बराबर होगी। ऐसे में अगर ओपिनियन मेकर्स चाहते हैं कि राणा एक बार फिर निर्दलीय मैदान में आएं तो क्या वे पुराना समीकरण लौटा सकते हैं? विचारणीय प्रश्न है। वास्तव में निर्दलीय का समीकरण महत्वपूर्ण होता है तब, जब भाजपा कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित हो जाएं और दोनों को ही उनके दलों में समान रूप से नापसंद किया जाए। यह होता रहा है और भविष्य में भी यही संभावित है। कारण, दोनों ही दलों में टिकट का सर्वसम्मत दावेदार कोई नहीं है। भाजपा चाहे किसी को भी टिकट दे, बाकी सब दावेदारों का नाराज होना लाजमी होगा। इसी प्रकार कांग्रेस किसी को भी टिकट दे बाकी सब दावेदार नाराज होंगे ही। यह अलग बात है कि दोनों ही दलों में खुलकर बगावत कोई एक ही करे और दोनों दलों के असंतुष्ट उसके पीछे चलें।
ऐसे में अगर यह होता है कि जिस प्रकार 10 साल पहले यशपाल राणा भाजपा से बगावत करके बाहर आए थे उसी प्रकार वे अबकी बार कांग्रेस से बगावत करके बाहर आएं और बतौर निर्दलीय डट जायें तो उनका समीकरण क्या होगा? समीकरण का क्या होगा? इस संदर्भ में सबसे अहम मसला यह है कि 2013 में नगर की राजनीति में बगावत भाजपा के पंजाबी प्रत्याशी महेंद्र काला और कांग्रेस के बनिया प्रत्याशी राम अग्रवाल की उम्मीदवारी के खिलाफ हुई थी। तब नगर पालिका अध्यक्ष और विधायक दोनों पदों पर पंजाबी प्रदीप बत्रा विराजमान थे और आम ओपिनियन यह बनी थी कि “शहर क्या केवल बनियों पंजाबियों की बपौती है?” नतीजा यह हुआ था कि दूर दूर तक के राजपूत और कट्टर भाजपाई भी राणा के पीछे आकर खड़े हो गए थे। सारे हिन्दू मुस्लिम राजपूत एक मंच पर आ गए थे। लेकिन यह अहम बात नहीं थी। अहम बात यह थी कि “बनिया विरोध” की यह भावना खुद बनियों के भीतर से निकली थी और राम अग्रवाल विरोधी सारे बनिए यशपाल राणा के साथ खड़े हो गए थे। इनमें सबसे अहम थे पूर्व भाजपा विधायक सुरेश जैन और सचिन गुप्ता जो आज कांग्रेस में मेयर टिकट के सबसे प्रबल दावेदार हैं। बहुत संभावना इस बात की है कि आज अगर कांग्रेस में यशपाल राणा का टिकट कटने की नौबत आती है तो टिकट सचिन गुप्ता को ही मिले। ऐसे में सवाल यह है कि सचिन गुप्ता अपना चुनाव लडेंगे या यशपाल राणा को चुनाव लड़ाएंगे। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि, भले ही 2022 में यशपाल राणा को विधानसभा चुनाव दर्जनों कांग्रेसियों ने हराया रहा हो लेकिन खुद यशपाल राणा का इस मामले में निशाना अकेले सचिन गुप्ता ही रहे हैं। दूसरी बात, जिस ओपिनियन मेकर का हम उपर उल्लेख करके आए हैं उसका यह भी दावा है कि आज, आज, सचिन गुप्ता के रूप में बनिया समाज की नेतृत्व की कमी पूरी हो गई है यानी सचिन गुप्ता बनियों के बीच सर्व सम्मत नेता बन गए हैं। यह भी साफ दिख रहा है कि नरेश यादव की अगुवाई वाली सुरेश जैन की जो टीम 2013 में राणा के साथ थी वह अब सचिन गुप्ता के साथ है।
फिर, राजपूतों की जो टीम 2013 में यशपाल राणा के साथ थी वह अब अपनी राजनीति कर रही है। उदय पुंडीर ढढेरा में अपनी चुनावी जमीन बना रहे हैं तो मुन्नन पुत्र आदित्य सिंह रुड़की भाजपा में अपने लिए संभावना तलाश रहे हैं। 2013 में यशपाल राणा की सबसे बड़ी ताकत बने पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भविष्य में यशपाल राणा के सबसे बड़े विरोधी के रूप में सामने आ सकते हैं। कभी बत्रा के खिलाफ राणा की ताकत बने मनोहर लाल शर्मा तभी राणा के साथ आ सकते हैं जब बत्रा ही राणा के साथ आ जाएं। कांग्रेस के पूर्व जिला अध्यक्ष चौधरी राजेंद्र सिंह 2013 में यशपाल राणा के लिए निर्णायक साबित हुए थे। अब क्या ऐसा होगा? दरअसल, यशपाल राणा 2013 वाला समीकरण अब तभी बना सकते हैं जब न तो हरीश रावत अपनी पसंद के व्यक्ति को कांग्रेस का मेयर टिकट दिला पाएं और न ही पूर्व मुख्यमंत्री व स्थानीय सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत अपनी पसंद के व्यक्ति को भाजपा टिकट दिला पाएं। क्या ऐसा हो पाएगा? इसी पर यशपाल राणा का बतौर निर्दलीय प्रत्याशी समीकरण निर्भर करेगा। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि वे जीतें या हारें लेकिन एक और मजबूत चुनाव निर्दलीय भी लड़ने में वे सक्षम हैं।