एम हसीन
निकाय चुनाव को लेकर जो हालत पूरे जिले के निकाय क्षेत्रों में हैं वे ही रुड़की महानगर में नहीं हैं। यहां अभी मसला यह है कि नगर प्रमुख पद पिछड़ा या दलित वर्ग के लिए आरक्षित होगा या नहीं। हमेशा की तरह इस बार भी सत्तारूढ दल का एक वर्ग यह संभावना जता रहा है कि इस बार यहां आरक्षण लागू हो सकता है; हालांकि ऐसा होना बहुत मुश्किल है। बहरहाल, बेशक सभी प्रकार की कैटेगरीज में राजनीतिक रूप से सक्रिय चेहरे अपनी अपनी संभावनाओं पर गौर कर रहे हैं, अपनी अपनी संभावनाएं निखार रहे हैं या घड़ रहे हैं। लेकिन इस मामले में दो बातें अहम हैं। एक, अभी कोई भी चेहरा खुल नहीं रहा है। त्योहारों के मद्दे नजर कुछ चेहरों ने अपने होर्डिंग लगाए जरूर हैं; इन्हीं के आधार पर लोग खुद ही अनुमान लगा रहे हैं कि कांग्रेस का टिकट अमुक को मिल सकता है और भाजपा का अमुक को मिल सकता है। खुलकर दावेदारी न अनारक्षित वर्ग का कोई चेहरा कर रहा है और न ही आरक्षित वर्ग का कोई चेहरा। सब तेल और तेल की धार देख रहे हैं।
दूसरी बात, मेयर पद के सबसे कनिष्ठ अभिलाषी जमाल अहमद की भी प्राथमिकता है दल ही। उन्होंने भी जब अपने लिए भाजपा या कांग्रेस में कोई संभावना नहीं देखी तो उन्होंने पहली फुरसत में आजाद समाज पार्टी का दामन थाम लिया और अपनी समझ में पार्टी का टिकट अपने लिए सिक्योर कर लिया। यानी अगर अंत तक हालत ऐसे ही रहते हैं तो लड़ेंगे वे भी पार्टी के टिकट पर ही। निर्दलीय वे भी नहीं लड़ेंगे। या कम से कम निर्दलीय लड़ने उनकी अभी से तैयारी नहीं है। जबकि रुड़की की सच्चाई कुछ और है। रुड़की की सच्चाई यह है कि यहां दलीय प्रत्याशी के जीतने का इतिहास केवल राजेश गर्ग के नाम दर्ज है जो 1995 में भाजपा के टिकट पर जीते थे। उससे पहले या उसके बाद कोई भी दल का प्रत्याशी यहां नगर प्रमुख नहीं बना।
इस सच के बावजूद, फिलहाल भाजपा या कांग्रेस या किसी भी और दल के टिकट की उम्मीद लगा रहे चेहरों में ऐसा कोई भी चेहरा नहीं है जिसकी तैयारी हर हाल में चुनाव लड़ने की हो, फिर चाहे उसे टिकट मिले या न मिले। हालांकि दिलचस्प रूप से कम से कम एक एक चेहरा भाजपा और कांग्रेस में ऐसा है जरूर जो इस संभावना को नहीं नकार रहा है कि अगर टिकट उसे न मिला तो वह शहीद का दर्जा अख्तियार करेगा और बगावत करके चुनाव में चला जाएगा। दूसरी ओर दलों के बड़े नेता भी किसी दावेदार को अभी इतना लिफ्ट नहीं दे रहे हैं कि किसी को लेकर जनता में कोई सोच बने या किसी को अपना टिकट संभावित लगे। हालांकि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से लेकर सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत और राज्यसभा सांसद नरेश बंसल से लेकर विधायक प्रदीप बत्रा तक सभी किसी न किसी रूप में निकाय चुनाव के मद्देनजर ही नगर में राजनीति कर रहे हैं लेकिन किसी के किसी एक्शन से यह नहीं लगता कि वे किसे टिकट दिलाना पसंद करेंगे।
यही स्थिति कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करण माहरा और मंगलौर के प्रभावशाली विषयक क़ाज़ी निज़ामुद्दीन की है।नऐसी स्थिति में जाहिर है कि पार्टी प्रत्याशी के रूप में किसी एक या दोनों दलों का प्रत्याशी ऐसा भी हो सकता है जो फिलहाल लाइम लाइट में ही नहीं है। कोई एक या दोनों दल ऐसे चेहरों को भी टिकट दे सकते हैं जिन्हें जिताना ही नहीं चाहेंगे। ऐसे में निश्चित रूप से सेहरा किसी निर्दलीय के सर ही बंधेगा क्योंकि कोई दल अगर हारना भी चाहेगा तो अपने प्रतिस्पर्धी दल से तो नहीं हारना चाहेगा। फिर यही होगा कि अगर कोई एक दल हारेगा तो दूसरा भी हारेगा; जैसा कि अभी तक होता आया है। ऐसी ही स्थिति के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में टिकट का कम से कम एक दावेदार तो ऐसा जरूर है जो अपना टिकट कटने पर बगावत करेगा और निर्दलीय चुनाव में जायेगा।
लेकिन ऐसी किसी स्थिति के लिए कोई भी चेहरा अपने आपको जनता के बीच प्रोजेक्ट नहीं कर रहा है। जनता के बीच सब खुद को पार्टी के वफादार ही दिखा रहे हैं। न ही कोई इस बात पर विचार कर रहा है कि निर्दलीय चुनाव जीता जा सकता है लेकिन जीतकर बोर्ड को नहीं चलाया जा सकता। यही इसी से जाहिर है कि भाजपा या कांग्रेस या किसी अन्य दल के टिकट के किसी भी दावेदार के पास निगम के 40 वार्डों में एक एक ऐसा चेहरा नहीं है जो समय आने पर निर्दलीय चुनाव लड़कर अपने लिए और अपने निर्दलीय मेयर प्रत्याशी के लिए जीतने या मुकाबले में आने लायक वोटों का जुगाड कर सके। है न रुड़की नगर निगम की राजनीति बेहद दिलचस्प और बाकी जिले से बिलकुल अलग।